किताबें

आज पढ़ने किताब बैठा मैं
मगर कुछ अच्छी नहीं लगी वो
तो पूछ लिया किताब से
क्यूं मायूस है तू, क्यों उदास है तू
किस मंथन में पड़ी है तू
कहने लगी अपनी दास्तां की लोग छोड़ रहे मुझे देखना
अब मेरे पन्नों में नहीं चाहता कोई झांकना
है चाह नहीं मुझे अब शीशे के खांचे में रहना
पड़े पड़े उन खांचों में धूल से श्रृंगार करना
लोग अब रिवीजन के लिए कहां हीं मुझे रिकॉल करते हैं
बस उठाते हैं फोन और पेज स्क्रॉल करते हैं
हुआ बेहद ज़रूरी तो ले आते एक शाम के लिए
पन्ने पलटते भी है तो बस एग्जाम के लिए
वो बच्चे जो कभी दौड़ते थे मुझे कवर पहनाने
अब सीखने के लिए कुछ भी, गूगल पे लगे जाने
कहती नहीं मैं की ना जाओ गूगल के पास
पर मेरे भी होने का मुझे दिलाओ तो एहसास
उतारना चाहती हूं मैं भी ,धूल की श्रृंगार
आओ फुर्सत में निकालो मुझे एक बार!

कुमार अभिनव

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